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जो मार खा रोईं नहीं | विष्णु खरे

तिलक मार्ग थाने के सामने

जो बिजली का एक बड़ा बक्स है

उसके पीछे नाली पर बनी झु्ग्गी का वाक़या है यह

चालीस के क़रीब उम्र का बाप

सूखी सांवली लंबी-सी काया परेशान बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी

अपने हाथ में एक पतली हरी डाली लिए खड़ा हुआ

नाराज़ हो रहा था अपनी

पांच साल और सवा साल की बेटियों पर

जो चुपचाप उसकी तरफ़ ऊपर देख रही थीं

ग़ु्स्सा बढ़ता गया बाप का

पता नहीं क्या हो गया था बच्चियों से

कु्त्ता खाना ले गया था

दूध, दाल, आटा, चीनी, तेल, केरोसीन में से

क्या घर में था जो बगर गया था

या एक या दोनों सड़क पर मरते-मरते बची थीं

जो भी रहा हो तीन बेंतें लगी बड़ी वाली को पीठ पर

और दो पड़ीं छोटी को ठीक सर पर

जिस पर मुण्डन के बाद छोटे भूरे बाल आ रहे थे

बिलबिलाई नहीं बेटियाँ एकटक देखती रहीं बाप को तब भी

जो अन्दर जाने के लिए धमका कर चला गया

उसका कहा मानने से पहले

बेटियों ने देखा उसे

प्यार, करुणा और उम्मीद से

जब तक वह मोड़ पर ओझल नहीं हो गया