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Description

कल्पवृक्ष | दामोदर खड़से 

कविता

भीतर से होते हुए 

जब शब्दों में ढलती है

भीतरी ठिठुरन

ऊष्मा के स्पर्श से

प्राणवान हो उठती है 

ज्यों थकी हुई प्रतीक्षा

बेबस प्यास

दुत्कारी आशा

अनायास ही

किसी पुकार को थाम लेती है

शब्द सार्थक हो उठते हैं

और एकांत भी 

सान्निध्य से भर जाते हैं

कविता

कल्पवृक्ष है।