कंकरीला मैदान | केदारनाथ अग्रवाल
कंकरीला मैदान
ज्ञान की तरह जठर-जड़ लंबा-चौड़ा,
गत वैभव की विकल याद में-
बड़ी दूर तक चला गया है गुमसुम खोया!
जहाँ-तहाँ कुछ- कुछ दूरी पर,
उसके ऊपर,
पतले से पतले डंठल के नाज़ुक बिरवे
थर-थर हिलते हुए हवा में खड़े हुए हैं
बेहद पीड़ित!
हर बिरवे पर मुँदरी जैसा एक फूल है।
अनुपम मनहर, हर ऐसी सुंदर मुँदरी को
मीनों ने चंचल आँखों से,
नीले सागर के रेशम के रश्मि -तार से,
हर पत्ती पर बड़े चाव से बड़ी जतन से,
अपने-अपने प्रेमी जन को देने की
ख़ातिर काढ़ा था
सदियों पहले ।
किन्तु नहीं वे प्रेमी आये,
और मछलियाँ-
सूख गयी हैं, कंकड़ हैं अब!
आह! जहाँ मीनों का घर था
वहाँ बड़ा वीरान हो गया।