कत्थई गुलाब - शमशेर बहादुर सिंह
कत्थई गुलाब
दबाए हुए हैं
नर्म नर्म
केसरिया साँवलापन मानो
शाम की
अंगूरी रेशम की झलक,
कोमल
कोहरिल
बिजलियाँ-सी
लहराए हुए हैं
आकाशीय
गंगा की
झिलमिली ओढ़े
तुम्हारे
तन का छंद
गतस्पर्श
अति अति अति नवीन आशाओं भरा
तुम्हारा
बंद बंद
“ये लहरें घेर लेती हैं
ये लहरें...
उभरकर अर्द्धद्वितीया
टूट जाता है...”
किसका होगा यह पद
किस कवि-मन का
किस सरि-तट पर सुना?
ओ प्रेम की
असंभव सरलते
सदैव सदैव!