कविता का जन्म | रामदरश मिश्र | कार्तिकेय खेतरपाल
आजकल
सोते-सोते जागता हूँ
जागते-जागते सोता हूँ
कहीं हो कर भी वहाँ नहीं होता हूँ
वाचाल भाषा
गर्भिणी युवती की तरह
अपनी ही आभा के भार से भर जाती है
आँखें दृश्यों से होकर
हो जाती हैं दृश्यों के पार
टूटे हुए रास्तों में
जुड़ जाता है संवाद
अपने ही भीतर कुछ खोया हुआ आता है याद
चारों ओर के अवकाशों में
कुछ थर्राने लगता है
सन्नाटा भी धीरे-धीरे गाने लगता है
मैं भूल जाता हूँ–
अपना नाम, ग्राम और वल्दियत
और रह जाता हूँ
हवा में खोयी ख़ुशबू की तरह आदमी की पहचान
आँधी के ख़िलाफ
छोटे-छोटे पौधे तन जाते हैं
मार खायी आँखों के आँसुओं में
धीरे-धीरे आग के चित्र बन जाते हैं
क्या मेरे भीतर किसी कविता का जन्म हो रहा है?