कविता की हवा | कनिष्का
जब भी
पापड़ तिलौरी
चुरा
छनते
ढक के न रखें
तो हवा लगने से खराब हो जाते
हवा न लगे इसलिए
मेहमानों को परोसे गए बचे
बिस्कुट
मठरी
नमकीन
नमकपारों
जैसी चीजों को डब्बे में
बंद करके रखा जाता है
ताकि हवा न लगे
हवा लगना कभी भी
अच्छा नहीं माना गया
हवाएँ एक भुलक्कड़ जलचर है
जो संसार रुपी समुद्र में यहाँ वहाँ किसी से भी जा
टकरा उसे अपने गिरोह में मिला लेते हैं
पत्थरों को जब हवा लगी तो
वह तैरना भूल गए
पानी को हवा लगी तो ठहरना भूल गई
वैसे ही परिवर्तनीय प्रकृति को हवा लगी
तो वह स्थिरता भूल गई
नाना को हवा लगी तो वो साँस लेना भूल गए
सुगना जब पढ़ने विदेश गई
तो घर भूल गई
दादी ने कहा
उसे हवा लग गई है
जब बबलू को हवा लगी
तो वो माँ बाप भूल गया
हवा लगने के क्रम में
बस जब घर को हवा लगी तो
वो कुछ भी नहीं भूले
बस चुपचाप दो हिस्सों में
एक लकीर के सहारे खड़े रहे
माँ कविता लिखती है
बेहिसाब लिखती है
वो घंटो नल के आगे बैठती
जैसे नल कोई फनकार है
और नल से कविता के शब्द
बह रहे है
माँ जब भी किसी काम में देर करती
घरवाले सोचते
कविता गढ़ रही होगी
वो सुनाने जाती तो
घरवाले कहते
इन सब के लिए उनके पास टाइम नहीं
शायद इसीलिए क्योंकि माँ ने
कविता में एकान्त ढूंढ लिया है
वो इस तरह एकान्त पर पसरेगी
के यादों के चमकीले टुकड़े सीने से पिघल जाएंगे
फिर गाहे गाहे माँ के पूरे शरीर को कलेजा चूस लेगा
उनका कलेजा बढ़ते बढ़ते
घर
शहर
ब्रह्मांड
और इश्वर तक को
निगल लेगा
फिर वो
खुदको जान जाएगी
और ये घरवालों के लिए ख़तरनाक है
अगर ऐसा हुआ
तो समाज स्त्रियों को ब्लैक होल साबित कर देगा
इसलिए
बच जाता है
माँ के लिए
आधे चाँद पर रगड़ा नून
और एक रोटी के बराबर का पेट
उनसे कितना कहा
बिन मसाले का पकाओ
बढती उम्र में ये सब हम नहीं खा सकते
तब भी बूढ़ी माँ अपनी कविताओं को कभी
पक रहे सादे भात में मिला देती है
कभी फीकी दाल में
तो बेस्वाद सी हो सकने वाली खिचड़ी में
इस तरह कई बार
बस कविताओं ने बनाया माँ के पकवानों को
शायद वो नहीं भूली वो ठंडे दिन
जब ग़रीबी में मसालों ने नहीं
बल्कि भूख और तिरस्कार में जन्मी कविताओं ने
बचाया रसोई को
उनके परेशान और घबराए हुए स्पंदन
हमारे कपड़ों
और बाकी सामानो पर लिपटकर
ऐसे घूरते के जैसे हमने फिर कोई नादानी का फूल
उनसे बचकर बालों की बेल पर हल्के से रख दिया हो
वो कविताओं से रोज चूल्हा नीपती
और जलावन के टुकड़ों पर गीत को सजाती
उनके गीत अपने हुनर के चर्म पर
जुदा हुए प्रेमियों को मिला देते
माँ प्रेम में एक गोताखोर है
आभाव और दुख के दिनों में
डुबकी मार वो चुन लाती रही
खुदको ढूंढ़ते हुए
कच्ची मछलियों वाली प्रेरणा
या फिर डुबकी मार
पूर्व जन्म की मेरी माँ यशोधरा
तथागत को सौंपने निकल गई
अपना गर्भ जिसमें जन्मों से
पालती जिम्मेदारी में
वो नहीं ढूंढ पाई थी खुदको
घरवालों को डर है
माँ के काफ़िर होते जा रहे शब्द
फतवे की मज़ार को लाँघ जाएंगे
क्योंकि माँ को हवा लगने लगी है
इसलिए थोड़ी न माँ को
गृहस्ती के डिब्बे में बंद किया था
माँ को हवाओं के विपरित रक्खा है ताकि
वो यतीम हवाओं को गोद न ले ले
वरना किताबों में उनके देवी होने के प्रमाण
उन्हें सजीव
एक हुनरबाज़ तैराक चिकना पत्थर बना देंगे
जिसके कोरे दर्पण में खुदकी परछाई को रचकर माँ खुदको
निहारती रहेगी किसी जोगन की तरह कल्पों तक
माँ की उम्र
शाख की डाल पर चुपचाप सूखकर
फिसलने लगती है
उनकी कविताएँ अपनी केंचुली उतारकर
टाँग देते हैं हर जगह
जहाँ जहाँ माँ कविताएँ भूल जाती है
तो कविताएँ मृत्यु की सुरंग से गुज़र पकोड़े के तेल से
सने कागज़ से बाहर आ
माँ की तलाश में
फस गए तयखाने के जालों में
तो अलमारी के पीछे बचे कचड़े में
इनपर भी नहीं तो
इक सिरफिरे प्रेमी की कटी कलाई की तरह
उखड़ आए दीवारों की पपड़ियों से
आखरी बार पानी दिए गए सूखे पुराने गमले में
ऐसा नहीं है की माँ अच्छी सफाई नहीं जानती
बस उन कोनों से उसी तरह सरक जाती है
जैसे औरतों को
घर और वसीयतों से सरकाया गया
इस बार वो अपने बच्चों के स्थान पर
अपनी माँ रुपी कविताओं की कोख से निकल
उन्हें अलगाववादी घोषित कर देती है
क्योंकि माँ को आशंका है
माँ को कविताओं की हवा लग गई है
तो इस बार अगर कविताएँ
उन से टकराई तो
डिब्बा खुल जाएगा
और माँ उड़ जाएगी
क्योंकि माँ को हवा लग जाएगी