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ख़ाली जगह | अमृता प्रीतम

सिर्फ़ दो रजवाड़े थे –

एक ने मुझे और उसे

बेदखल किया था

और दूसरे को

हम दोनों ने त्याग दिया था।

नग्न आकाश के नीचे –

मैं कितनी ही देर –

तन के मेंह में भीगती रही,

वह कितनी ही देर

तन के मेंह में गलता रहा।

फिर बरसों के मोह को

एक ज़हर की तरह पीकर

उसने काँपते हाथों से

मेरा हाथ पकड़ा!

चल! क्षणों के सिर पर

एक छत डालें

वह देख! परे – सामने उधर

सच और झूठ के बीच –

कुछ ख़ाली जगह है...