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ख़राब टेलीविज़न पर पसंदीदा प्रोग्राम देखते हुए | सत्यम तिवारी 

दीवारों पर उनके लिए कोई जगह न थी 

और नए का प्रदर्शन भी आवश्यक था

 इस तरह वे बिल्लियों के रास्ते में आए 

और वहाँ से हटने को तैयार न हुए 

यहीं से उनकी दुर्गति शुरू हुई 

उनका सुसज्जित थोबड़ा बिना ईमान के डर से बिगड़ गया 

अपने आधे चेहरे से आदेशवत हँसते हुए 

वे बिल्कुल उस शोकाकुल परिवार की तरह लगते 

जिनके घर कोई नेता खेद व्यक्त करने पहुँच जाता है 

बाक़ी बचे आधे में वे कुछ कुछ रुकते फिर दरक जाते 

जब हम उन्हें देख रहे होते हैं 

वे किसे देख रहे होते हैं

 ये सचमुच देखे जाने का विषय है 

क्या सात बजकर तीस मिनट पर 

एक अधपकी कच्ची नींद लेते हुए 

उन्हें अचानक याद आता होगा

 कि यह उनके पसंदीदा प्रोग्राम का वक़्त है

 या हर रविवार दोपहर बारह के आस-पास 

प्रसारित होती हुई कोई फ़ीचर फ़िल्म या कार्यक्रम चित्रहार देख कर 

उनकी ज़िन्दगी रिवाइंड होती होगी 

मसलन कॉलेज के दिनों में सुने हुए गीतों की याद 

या गीत गाते हुए खाई गई क़समों की कसक 

टीन के डब्बे नहीं हैं टेलीविजन 

फिर भी उन्होंने वही चाहा जो घड़ियाँ चाहती रही हैं इतने दिनों तक 

घड़ी दो घड़ी दिखना भर 

यानी कोई उन्हें देखे सिर्फ़ देखने के मक़सद से 

जिसे हम मज़ाक़ मज़ाक़ में टीवी देखना कह देते हैं 

जब बिजली गुल हो 

उस वक़्त उन्हें देखने से शायद कुछ ऐसा दिख जाए 

जो तब नहीं दिखता जब टीवी देखना छोड़ कर

 लोग तमाशा देखने लग जाते हैं जो टीवी पर आता है