ख़ुद से | रेणु कश्यप
गिरो कितनी भी बार मगर
उठो तो यूँ उठो
कि पंख पहले से लंबे हों
और उड़ान न सिर्फ़ ऊँची पर गहरी भी
हारना और डरना रहे
बस हिस्सा भर
एक लंबी उम्र का
और उम्मीद
और भरपूर मोहब्बत
हों परिभाषाएँ
जागो तो सुबह शाँत हो
ठीक जैसे मन भी हो
कि ख़ुद को देखो तो चूमो माथा
गले लगो ख़ुद से चिपककर
कि कब से
कितने वक़्त से,
सदियों से बल्कि
उधार चल रहा है अपने आपका
प्यार का जब हो ज़िक्र
तो सबसे पहला नाम
ख़ुद का याद आए
दुख का हो तो जैसे
किसी भूली भटकी चीज़ का
माँ का हो ज़िक्र तो बस
चेहरे का चूमना याद आए
बेतहाशा, एक साँस में बीसों बार
ग़लतियों और माफ़ियों को भूल जाएँ
ठीक वैसे ही
जैसे लिखकर मिटाया हो
कोई शब्द या लकीर।