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लेबर चौक | शिवम चौबे

कठरे  में सूरज ढोकर लाते हुए

गमछे में कन्नी, खुरपी, छेनी, हथौड़ी बाँधे हुए

रूखे-कटे हाथों से समय को धरकेलते हुए

पुलिस चौकी और लाल चौक के ठीक बीच

जहाँ रोज़ी के चार रास्ते खुलते है

और कई बंद होते हैं

जहाँ छतनाग से, अंदावा से, रामनाथपुर से

जहाँ मुस्तरी या कुजाम से

मुंगेर

या आसाम से

पूंजीवाद की आंत में अपनी ज़मीनों को पचता देख

अगली सुबह

ग़रीबी की गद्दी पर बैठ विकास की ट्टही साईकिल पे सवार

कई-कई मज़दूर आते हैं

वहीं है लेबर चौराहा

कई शहरों में कई-कई लेबर चौराहे हैं।

अल्लापुर या रामबाग में

बनारस या कानपुर में

दिल्ली या अमृतसर में

हर जगह जैसे सिविल लाइन्स है, जैसे घण्टाघर है, जैसे चौक है।

वैसे ही लेबर चौराहा है

इन जगहो से बहत अलग

लेबर चौराहा ही है।

जिसकी हथेली पे पूरा शहर टिका है

आँखों से अभिजातपने की पट्टी हटाकर देखोगे तब समझोगे कि

दुनिया के कोने-कोने में जहाँ-जहाँ मज़दूर हैं

वहाँ -वहाँ भी होता ही है लेबर चौराहा

फिर भी कितनी अजीब बात है।

जिन रेलों से मज़दूर आते हैं।

उनमें उनके डिब्बे सबसे कम है।

जिन शहरों को बसाते हैं।

उनमें उनके घर नगण्य है।

जिन खेतों में अन्न उगाते हैं

वहाँ उनकी भुख सबसे कम है

खदानों में, मिलों में, स्कूलों में, बाज़ारों में, अस्पतालों में

उनके हिस्से न के बराबर है

फिर भी वे आते हैं अपना गाँव-टोला छीन लिए जाने के बाद

जीने के लिए

गंदे पानी, गंदी हवा और गंदी व्यवस्था में

बचे रहने के लिए

उसी विकास की टूटही साईकिल पे सवार उनहें जब भी लेबर चौराहे की तरफ आता

हुआ देखो

उन्हें पहचानो

वे हमारे पड़ोस से ही आये हैं

उनसे पूछो- "का हाल बा"

वे जवाब ज़रूर देगे

इज़राइल या फिलिस्तीन में

भारत या ब्राज़ील में

जहाँ दुनिया ढहेगी

पहली ईट रखने वे ही आएंगे

लेकिन सोचने वाली बात ये है।

कि हर बार विकास की ट्टही साईकिल पे सवार

गमछे में कन्नी, खुरपी, छेनी, हथौड़ी बाँधे हुए

रूखे-कटे हाथों से समय को धकेलते

हुए

पुलिस चौकी और लाल चौक के ठीक बीच

क्या वे इसी तरह आएंगे..?