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लौटती सभ्यताएँ | अंजना टंडन

विश्वास की गर्दन प्रायः

लटकती है संदेह की कीलों पर,

“कहीं कुछ तो है” का भाव दरअसल

दिमाग की दबी आवाज़ है

जो अक्सर छोड़ देती है

प्रशंसा में भी कितनी खाली ध्वनियाँ,

संदेह के कान

आत्ममुग्धता की रूई से बंद है

आँखें ऊगी हैं पूरी देह पर और

खून में है दुनियावी अट्टाहास ,

कंठ भर तंज

दिल के मर्म को कभी जान नहीं पाएगा,

मृत्यु बाद ही धुले थे

बुल्लेशाह ,मीरा और अमृता के दाग,

 वैसे तो हर सभ्यता प्रेम से जन्मती है

विश्वास पर पनपती है

और संदेह की हवा में सांस तोड़ती है,

पर भुक्तभोगी जानते हैं कि इतिहास झुठला कर

 इन दिनों उसके रक्तरंजित पदचिन्ह, उल्टे पाँव लौटने के सिम्त दर्ज हो रहे है।