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लेकर सीधा नारा | शमशेर बहादुर सिंह

लेकर सीधा नारा 

कौन पुकारा 

अंतिम आशाओं की संध्याओं से? 

पलकें डूबी ही-सी थीं— 

पर अभी नहीं; 

कोई सुनता-सा था मुझे 

कहीं; 

फिर किसने यह, सातों सागर के पार 

एकाकीपन से ही, मानो—हार, 

एकाकी उठ मुझे पुकारा 

कई बार? 

मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल 

जीवन; 

कण-समूह में हूँ मैं केवल 

एक कण। 

—कौन सहारा! 

मेरा कौन सहारा!