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मल्लिकार्जुन मंसूर - अशोक वाजपेयी

मल्लिकार्जुन मंसूर
अपने भरे पर फिर भी सीधे बुढ़ापे में
हलका -सा झुककर
रखते हैं
कल के कंधे पर पर अपना हाथ
ठिठककर सुलगाते हैं अपनी बीड़ी
चल पड़ते हैं फिर किसी अप्रत्‍याशित
पड़ाव की ओर


अपने लिए कुछ नहीं बटोरते उनके संत-हाथ
सिर्फ लुटाते चलते हैं सब कुछ
गुनगुनाते चलते हैं पंखुरी-पंखुरी सारा संसार


ईश्‍वर आ रहा होता
घूमने इसी रास्‍ते
तो पहचान न पाता कि वह स्‍वयं है
या मल्लिकार्जुन मंसूर