मणिकर्णिका का बाशिंदा | ज्ञानेन्द्रपति
साढ़े तीन टाँगों वाला एक कुत्ता
मणिकर्णिका का स्थायी बाशिंदा है
लकड़ी की टालों और चायथानों वालों से हिलगा
यह नहीं कि दुत्कारा नहीं जाता वह
लेकिन हमेशा दूर-दूर रखने वाली दुर-दुर
नहीं भुगतता वह यहाँ
विकलांगता के बावजूद विकल नहीं रहता यहाँ
साढ़े तीन टाँगों वाला वह भूरा कुत्ता
तनिक उदास ऑँखों से मानुष मन को थाहता-सा
इधर से उधर आता-जाता है
बीच-बीच में यहाँ-वहाँ मिल जाता है
अपनी दयनीयता में
अपने इलाके में होने की अकड़ छुपाये
काठ का भरम देती, कंक्रीट की बनी
दो बेंचों पर
हम बैठे हैं।
शवसंगी आज, मणिकर्णिका पर
उधर चिताग्नि ने लहक पा ली है।
हाल की बनी हैं
ये बेंचें, नगर निगम ने लगवाईं
'सुविधाओं में इज़ाफ़ा' जिसे कहा जा रहा है
दिनोदिन कठिन होते जा रहे जिस नगर में
देवों को भी तंगी में काम चलाना पड़ रहा है
जहाँ
महादेव के नगर में
एक टूटी छूटी साँसों वाले के संग
अपनी साँसें जोड़ते यहाँ तक आने वालों के लिए
थकी देह ढीलने लायक ज़रा-सा इत्मीनान जहाँ
हालांकि पूरे ध्यान से कान लगाने पर भी
सुनायी नहीं पड़ता तारक मन्त्र का एक भी अक्षर
मुक्तिकामी शव के कानों में जिसे
शिव फुसफुसाते हैं
कि तभी, ध्यान बँटाता
एक बार फिर
गुज़रता है साढ़े तीन टाँगों वाला
मणिकर्णिका का स्थायी बाशिंदा वह कुत्ता
अपनी फुदक में हवा में झूलती अधकटी टाँग से निरक्षर फुसफुसाता
सा :
मुझसे पूछो, ज़िंदगी की बेअन्त जंगमता में मृत्यु अल्पविराम है सिर्फ़
उसकी लपलपाती जीभ हाँफती होती है दरअसल
महाजीवन के गति-चक्र में सब बँधे हैं -शिव हों कि श्वान