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मेरा आँगन, मेरा पेड़ | जावेद अख़्तर

मेरा आँगन

कितना कुशादा फैला हुआ कितना बड़ा था

जिसमें

मेरे सारे खेल

समा जाते थे

और आँगन के आगे था वह पेड़

कि जो मुझसे काफ़ी ऊँचा था

लेकिन

मुझको इसका यकीं था

जब मैं बड़ा हो जाऊँगा

इस पेड़ की फुनगी भी छू लूँगा

बरसों बाद

मैं घर लौटा हूँ

देख रहा हूँ

ये आँगन

कितना छोटा है

पेड़ मगर पहले से भी थोड़ा ऊँचा है