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मेरे सपने बहुत नहीं हैं | गिरिजा कुमार माथुर

मेरे सपने बहुत नहीं हैं

छोटी-सी अपनी दुनिया हो,

दो उजले-उजले से कमरे

जगने को, सोने को,

मोती-सी हों चुनी किताबें

शीतल जल से भरे सुनहले प्यालों जैसी

ठण्डी खिड़की से बाहर धीरे हँसती हो

तितली-सी रंगीन बग़ीची

छोटा लॉन स्वीट-पी जैसा,

मौलसिरी की बिखरी छितरी छाँहों डूबा

हम हों, वे हों

काव्य और संगीत-सिन्धु में डूबे-डूबे

प्यार भरे पंछी से बैठे

नयनों से रस-नयन मिलाए,

हिल-मिलकर करते हों

मीठी-मीठी बातें…

उनकी लटें हमारे कन्धों पर मुख पर

उड़-उड़ जाती हों,

सुशर्म बोझ से दबे हुए झोंकों से हिलकर

अब न बहुत हैं सपने मेरे

मैं इस मंज़िल पर आकर

सब कुछ जीवन में भर पाया।