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Description

नदी और साबुन | ज्ञानेन्द्रपति 

नदी!

तू इतनी दुबली क्यों है

और मैली-कुचैली

मारी हुई इच्छाओं की तरह मछलियाँ क्यों उतारे हैं

तुम्हारे दुर्दिनों के दुर्जल में

किसने तुम्हारा नीर हरा

कलकल में कलुष भरा

बाघों के जुठारने से तो

कभी दूषित नहीं हुआ तुम्हारा जल

न कछुओं की दृढ़ पीठों से उलीचा जाकर भी कम हुआ

हाथियों की जल-क्रीड़ाओं को भी तुम सहती रहीं सानंद

आह! लेकिन

स्वार्थी कारख़ानों का तेज़ाबी पेशाब झेलते

बैंगनी हो गई तुम्हारी शुभ्र त्वचा

हिमालय के होते भी तुम्हारे सिरहाने

हथेली-भर की एक साबुन की टिकिया से

हार गईं तुम युद्ध!