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Description

नदी, पहाड़ और बाज़ार | जसिंता केरकेट्टा | कार्तिकेय खेतरपाल

 

गाँव में वो दिन था, एतवार।

मैं नन्ही पीढ़ी का हाथ थाम

निकल गई बाज़ार।

सूखे दरख़्तों के बीच देख

एक पतली पगडंडी

मैंने नन्ही पीढ़ी से कहा,

देखो, यही थी कभी गाँव की नदी।

आगे देख ज़मीन पर बड़ी-सी दरार

मैंने कहा, इसी में समा गए सारे पहाड़।

अचानक वह सहम के लिपट गई मुझसे

सामने दूर तक फैला था भयावह क़ब्रिस्तान।

मैंने कहा, देख रही हो इसे?

यहीं थे कभी तुम्हारे पूर्वजों के खलिहान।

नन्ही पीढ़ी दौड़ी : हम आ गए बाज़ार!

क्या-क्या लेना है? पूछने लगा दुकानदार।

भैया! थोड़ी बारिश, थोड़ी गीली मिट्टी,

एक बोतल नदी, वो डिब्बाबंद पहाड़

उधर दीवार पर टँगी एक प्रकृति भी दे दो,

और ये बारिश इतनी महँगी क्यों?

दुकानदार बोला : यह नमी यहाँ की नहीं!

दूसरे ग्रह से आई है,

मंदी है, छटाँक भर मँगाई है।

पैसे निकालने साड़ी की कोर टटोली

चौंकी! देखा आँचल की गाँठ में

रुपयों की जगह

पूरा वजूद मुड़ा पड़ा था...