नफ़ी | किश्वर नाहीद
मैं थी आईना फ़रोश* (विक्रेता)
कोह-ए-उम्मीद* (आशा का पहाड़) के दामन में
अकेली थी ज़ियाँ* (नुक़्सान) कोशिश
सुरय्या की थी हम-दोश
मुझे हर रोज़ हमा-वक़्त* (हर समय) थी बस अपनी ख़बर
मैं थी ख़ुद अपने में मदहोश
मैं वो तन्हा थी
जिसे पैर मिलाने का सलीक़ा भी न था
मैं वो ख़ुद-बीं* (आत्म-मुग्ध) थी
जिसे अपने हर इक रुख़ से मोहब्बत थी बहुत
मैं वो ख़ुद-सर* (अवज्ञाकारी) थी
जिसे हाँ के उजालों से बहुत नफ़रत थी
मैं ने फिर क़त्ल किया ख़ुद को
पिया अपना लहू हँसती रही
लोग कहते हैं हँसी ऐसी सुनी तक भी नहीं