नए साल पर | स्नेहमयी चौधरी
दोपहर जिस समय
थोड़ी देर के लिए स्थिर हो जाती है,
चहल-पहल रुकती-सी जान पड़ती है,
उस पार का जंगल गहरा हरा हो उठता है,
अपने कामों की गिनती करते-करते
जब सिर ऊपर उठाती हूँ—
सूरज दूसरी दिशा में पहुँच चुकता है।
दिन सरक कर चिड़ियों के पंखों में
दुबक जाता है।
मैं अपने को वहीं बैठी पाती हूँ
जहाँ सुबह थी।
हर साल की तरह
पिछले सारे अधूरे कामों की गड्डी की ओर से
आँख बंद कर
नया कुछ करने की सोचते-सोचते...
एक दिन और ढल जाता है।