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नए तरह से लैस होकर आ गई है नई सदी | शाश्वत उपाध्याय 

जो दिख नहीं रही मनिहारिन,

उसके चूड़ियों का बाज़ार

बेड़ियों के भेंट चढ़ गया है।

मोतियों की दुकान से

सीपियों ने रार ठान लिया है

नई तरह की लड़ाई लेकर आई है नई सदी।

टिकुली साटती-दोपहर काटती

सारी औरतें

शिव चर्चाओं में गूंथ दी गईं हैं।

शिव के गीतों में,

अब छपरा-सिवान के सज्जन का ज़िक्र भी होने लगा है

नई तरह की आस्था भी लेकर आ गई है नई सदी।

खेत, भूरे होकर अलसा गए हैं

हवा के सहारे गोते लगाते गेहूँ

डर कर चीख देते हैं सरेआम।

किसानी के नाम चढ़े चैत में खेत नहीं, समय काट रही बनिहारन।

'आग लागो- बढ़नी बहारो, हेतना घाम'

बोलने वाली गाँव भर की ठेकेदारन

नेपाल से आँख बनवा कर लौटी तो ज़रूर

लेकिन खेत में नहीं डाले पाँव उसने

मोतियाबिंद ने आंख का पानी जगा दिया।

कि नई बिमारी भी लेकर आ गई नई सदी।

चहक कर पेड़ के गोदी में झूल जाने वाले बच्चे,

समय से पहले बड़े हो गए ऐसा भी नहीं है

जीवन जीने को साधने के लिए सूरत से दमन तक बिछ गए हैं ज़रूर।

भय यही है

कि

रोटी-कपड़ा-मकान देने के लिए

शराब में खप कर अगर बचेंगे

तो अंत में धर्म के नाम पर चीख देंगे सरेआम

जैसे पके हुए गेहूँ हों।

और चीख तो एक जैसी होती है

क्या गेहूँ-क्या इंसान

भले ही नई तरह से लैस होकर आई है नई सदी,

नई तरह की चीख लेकर नहीं आ सकी।