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Description

परिन्दे पर कवि को पहचानते हैं - राजेश जोशी 

सालिम अली की क़िताबें पढ़ते हुए

मैंने परिन्दों को पहचानना सीखा।

और उनका पीछा करने लगा

पाँव में जंज़ीर न होती तो अब तक तो .

न जाने कहाँ का कहाँ निकल गया होता

हो सकता था पीछा करते-करते मेरे पंख उग आते

और मैं उड़ना भी सीख जाता

जब परिन्दे गाना शुरू करतें

और पहाड़ अँधेरे में डूब जाते।

ट्रक ड्राइवर रात की लम्बाई नापने निकलते

तो अक्सर मुझे साथ ले लेते

मैं परिन्दों के बारे में कई कहानियाँ जानता था

मुझे किसी ने बताया था कि जिनके पास पंख नहीं होते

और जिन्हें उड़ना नहीं आता

वे मन-ही-मन सबसे लम्बी उड़ान भरते हैं

इसलिए रास्तों में जो जान-पहचानवाले लोग मिलते

मुझसे हमेशा परिन्दों की कहानियाँ सुनाने को कहते

दोस्त जब पूछते थे तो मैं अक्सर कहता था

मुझे चिट्ठी मत लिखना

परिन्दों का पीछे करनेवाले का

कोई स्थायी पता नहीं होता

मुझे क्या ख़बर थी कि एक दिन ऐसा आएगा

जब चिट्ठी लिखने का चलन ही अतीत हो जाएगा

न जाने किन कहानियों से उड़ान भरते

कुछ अजीब-से परिन्देहमारे पास आते थे

जो गाते-गाते एक लपट में बदल जाते

और देखते-देखते राख हो जाते

पर एक दिन बरसात आती

और वे अपनी ही राख से फिर पैदा हो जाते

पता नहीं हमारे आकाश में उड़नेवाले परिन्दे 

कहानियों से निकलकर आए परिन्दों के बारे में

कुछ जानते थे या नहीं...

उनकी आँख देखकर लेकिन लगता था

कि उन कवियों को परिन्दे पर जानते हैं

जो क़ुक़्नुस जैसे हज़ारों काल्पनिक परिन्दों की -

कहानियाँ बनाते हैं ।

पाँव में ज़ंजीर न होती तो शायद

एक न एक दिन मैं भी किसी कवि के हत्थे चढ़कर

ऐसे ही किसी परिन्दे में बदल गया होता!