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Description

पीत कमल | नन्दकिशोर आचार्य 

जल ही जल की 

नीली-दर-नीली गहराई के नीचे 

जमे हुए काले दलदल ही दलदल में 

अपनी ही पूँछ पर सर टिका कर 

सो रहा था वह : 

उचटा अचानक 

भूला हुआ कुछ कहीं जैसे सुगबुगाने लगे।

कुछ देर उन्मन, याद करता-सा 

उसी बिसरी राग की धुन 

जल के दबावों में कहीं घुटती हुई

एक-एक कर लगीं खुलने 

सलवटें सारी

तरंग-सी व्याप गयी जल में : 

अपनी ही पूँछ के बल खड़ा 

झूमता था वह 

फण खिला था राग की मानिन्द ।

ऊपर जल की नीली गहराई में से 

फूट-फूट आते थे

पीत कमल !