पिता के श्राद्ध पर | अजेय जुगरान
हम कान लगाए बैठे हैं
लगता है अभी आवाज़ देंगे
लेकिन नहीं, वो हैं ही नहीं ।
मस्तिष्क पर आघात से पहले
वे पूर्णतः आत्मनिर्भर थे
या यूँ कहें केवल अम्मा पर निर्भर थे ।
हमसे कभी कुछ माँगा ही नहीं
केवल ताश, शतरंज या कैरम
खेलने का साथ छोड़ ।
उसके बाद उनकी आखें बोलने लगीं
और जब तक वो जिंदा थे
तब तक हम उन्हें पढ़ मददगार साक्षी रहे बने
उनके लिए टीवी लगाकर
उनके कमरे से आते जाते
हाल चाल पूछ
उनका तकिया, बिस्तर, दवा, पानी ठीक कर
उनके जूते चप्पल टोपी छड़ी सीधे कर
हम फिर अपने कामों में व्यस्त
उनकी पहले से मीठी
और आघात से क्षीण हुई आवाज़ को
तब तक न सुन पाते
जब तक वो झल्ला के हमें डाँट न देते
अपनी खोई ताक़त खोजते क्षणिक गुस्से में
जिसके बाद जो हमसे अनसुना हुआ होता
अम्मा उनका हाव भाव देख उसका अनुवाद करतीं
और हम वह सब चुपचाप करते, उससे थोड़ा ज़्यादा ही ।
लेकिन अब जब वो हैं नहीं
हम कान लगाए बैठे हैं
दिल चाहता है वो आवाज़ दें
लेकिन नहीं, वो हैं ही नहीं ।
अब वो न्यायाधीश हैं
और हम तरसते हैं उनकी
कोमल डाँट के आशीर्वाद को
जो वो अब दंडस्वरूप लगाते ही नहीं ।
हम कान लगाए बैठे हैं लेकिन अब वो बस
पूजा से झाँकते भर हैं इक शांत मुस्कान लिए
माथे तिलक लगी तस्वीर से ।