पिता | विनय कुमार सिंह
ख़ामोशी से सो रहे पिता की
फैली खुरदुरी हथेली को छूकर देखा
उन हथेलियों की रेखाएं लगभग अदृश्य हो चली थीं
फिर उन हथेलियों को देखते समय
नज़र अपनी हथेली पर पड़ी
और एहसास हुआ
न जाने कब उन्होंने अपनी क़िस्मत की लकीरों को
चुपचाप मेरी हथेली में
रोप दिया था
अपनी ओर से कुछ और जोड़कर