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पुरखों का दुःख - मदन कश्यप

दादा की एक पेटी पड़ी थी टीन की 

उसमें ढेर सारे काग़ज़ात के बीच 

जरी वाली एक टोपी भी थी

ज़र-ज़मीन के दस्तावेज़

बँटवारे की लादाबियाँ...

उनकी लिखावट अच्छी थी 

अपने ज़माने के ख़ासे पढ़े-लिखे थे दादा 

तभी तो कैथी नहीं नागरी में लिखते थे

उनमें कोई भी दस्तावेज़ नहीं था दुख का 

दादा ने अपनी पीड़ाओं को कहीं भी दर्ज नहीं किया था 

उनके ऐश्वर्य की कुछ कथाएँ ज़रूर सुनाती थी दादी 

कि कैसे टोपी पहनकर 

हाथ में छड़ी लेकर 

निकलते थे गाँव में दादा

लेकिन दादी ने कभी नहीं बताया 

कि भादों में जब झड़ी लगती थी बरसात की 

और कोठी के पेंदे में केवल कुछ भूसा बचा रह जाता था

तब पेट का दोज़ख भरने के लिए 

अन्न कैसे जुटाते थे दादा

नदी और चौर-चाँचर से घिरे इस गाँव में 

अभी मेरे बचपन तक तो घुस आता था 

गंडक का पानी 

फिर दादा के बचपन में कैसा रहा होगा यह गाँव 

कैसी रही होगी यह नदी सदानीरा 

कभी जिसको पार करने से ही बदल गयी थी संस्कृति 

सभ्यता ने पा लिया था अपना नया अर्थ

और कुछ भी तो दर्ज नहीं है कहीं 

फ़क़त कुछ महिमागानों के सिवा 

हम महान ज्ञात्रिक कुल के वंशज हैं 

हम ने ही बनाया था वैशाली का जनतंत्र 

कोई तीन हज़ार वर्षों से बसे हैं हम 

इस सदानीरा शालिग्रामी नारायणी के तट पर 

लेकिन यह किसी ने नहीं बताया है 

कि बाढ़ और वर्षा की दया पर टिकी 

छोटी जोत की खेती से कैसे गुज़ारा होता था पुरखों का 

क्या स्त्रियों और बेटियों को मिल पाता था भरपेट खाना

बचपन में बीमार रहने वाले मेरे पिता 

बहुत पढ़-लिख भी नहीं पाये थे 

वे तो जनम से ही चुप्पा थे 

हर समय अपने सीने में 

नफ़रत और प्रतिहिंसा की आग धधकाये रहते थे 

और जो कभी भभूका उठता था

तो पूरा घर झुलस जाता था

उनकी पीड़ा थी कोशी की तरह प्रचंड बेगवती

जिसे भाषा में बाँधने की कभी कोशिश नहीं की उन्होंने

मैंने माँ की आँखों और पिता की चुप्पी में

महसूस किया था जिस दुख को

अचानक उसे अपने रक्त में बहते हुए पाया

किसी भी अन्य नदी से ज़्यादा प्राचीन है वेदना की नदी

जो समय की दिशा में बहती है

पी़ढी-दर-पी़ढी पुश्त-दर-पुश्त!

दुख का कारण और निदान ढूँढ़ने ही तो निकले थे बुद्ध

वे तो मर-खप ही जाते ढोंगेश्वर की गुफाओं में

कि उनके दुख को करुणा में बदल दिया

सुजाता की खीर ने!