पुस्तकें | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
नहीं, इस कमरे में नहीं
उधर
उस सीढ़ी के नीचे
उस गैरेज के कोने में ले जाओ
पुस्तकें
वहाँ नहीं, जहाँ अँट सकती फ्रिज
जहाँ नहीं लग सकता आदमकद शीशा
बोरी में बाँधकर
चट्टी से ढककर
कुछ तख्ते के नीचे
कुछ फूटे गमलों के ऊपर
रख दो पुस्तकें
ले जाओ इन्हें तक्षशिला-विक्रमशिला
या चाहे जहाँ
हमें उत्तराधिकार में नहीं चाहिए पुस्तकें
कोई झपटेगा पासबुक पर
कोई ढूँढ़ेगा लॉकर की चाभी
किसी की आँखों में चमकेंगे खेत
किसी में गड़े हुए सिक्के
हाय-हाय, समय
बूढ़ी दादी-सी उदास हो जाएँगी
पुस्तकें
पुस्तकों !
जहाँ भी रख दें वे
पड़ी रहना इंतजार में
आएगा कोई न कोई
दिग्भ्रमित बालक ज़रूर
किसी शताब्दी में
अँधेरे में टटोलता अपनी राह
स्पर्श से पहचान लेना उसे
आहिस्ते-आहिस्ते खोलना अपना हृदय
जिसमें सोया है अनंत समय
और थका हुआ सत्य
दबा हुआ गुस्सा
और गूँगा प्यार
दुश्मनों के जासूस
पकड़ नहीं सके जिसे ।