रौशनी | राजेश जोशी
इतना अँधेरा तो पहले कभी नहीं था
कभी-कभी अचानक जब घर की बत्ती गुल हो जाती थी
तो किसी न किसी पड़ोसी के घर जलाई गई
मोमबत्ती की कमज़ोर सी रोशनी
हमारे घर तक चली आती थी
कभी-कभी सड़क की रोशनियाँ खिड़की से झाँक कर घर को रोशन कर देतीं
और कुछ नहीं
तो कहीं भीतर
बची हुई कोई बहुत धुँधली सी ज़िद्दी रोशनी
कम से कम इतना तो कर ही देती थी
कि दीया सलाई
और मोमबत्तियाँ ढूँढ़ कर, जला ली जाएँ
कोई कहता है
इतना अँधेरा तो
पहले, कभी नहीं था
इतना अँधेरा तो तब भी नहीं था
जब अग्नि काठ में व पत्थर के गर्भ में छिपी थी
तब इतना धुंधला नहीं था आकाश
नक्षत्रों की रोशनी धरती तक ज़्यादा आती थी
इतना अँधेरा तो पहले कभी नहीं था
लगता है, ये सिर्फ़ हमारे गोलार्द्ध पर उतरी रात नहीं
पूरी पृथ्वी पर धीरे-धीरे फैलता जा रहा अंधकार है
अँधेरे में सिर्फ़ उल्लू बोल रहे हैं
और उसकी पीठ पर बैठी देवी
फिसल कर गिर गई है गर्त में
इतना अँधेरा तो पहले कभी नहीं था
कि मुँह खोल कर अँधेरे को कोई अँधेरा न कह सके
कि हाथ को हाथ भी न सूझे
कि आँख के सामने घटे अपराध की कोई गवाही न दे सके
इतना अँधेरा तो पहले कभी...