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साठ का होना | मदन कश्यप

तीस साल अपने को सँभालने में

और तीस साल दायित्वों को टालने में कटे

इस तरह साठ का हुआ मैं

आदमी के अलावा शायद ही कोई जिनावर इतना जीता होगा

कद्दावर हाथी भी इतनी उम्र तक नहीं जी पाते

कुत्ते तो बमुश्किल दस-बारह साल जीते होंगे

बैल और घोड़े भी बहुत अधिक नहीं जीते

उन्हें तो काम करते ही देखा है

हल खींचते-खींचते जल्दी ही बूढ़े हो जाते हैं बैल

और असवार के लगाम खींचने पर

दो टाँगों पर खड़े हो जाने वाले गठीले घोड़े

कुछ ही दिनों में खरगीदड़ होकर

ताँगों में जुते दिखते हैं।

मनुष्यों के दरवाज़ों पर बहुत नहीं दिखते बूढ़े बैल

जो हल में नहीं जुत सकते

और ऐसे घोड़े तो और भी नहीं

जो ताँगा नहीं खींच सकते

मैंने बैलों और घोड़ों को मरते हुए बहुत कम देखा है।

कहाँ चले जाते हैं बैल और घोड़े

जो आदमी का भार उठाने के काबिल नहीं रह जाते

कहाँ चली जाती हैं गायें

जो दूध देना बन्द कर देती हैं।

हम उन जानवरों के बारे में काफ़ी कम जानते हैं

जिनसे आदमी के स्वार्थ की पूर्ति नहीं होती

लेकिन उनके बारे में भी कितना कम जानते हैं

जिन्हें जोतते दुहते और दुलराते हैं।

आदमी ज़्यादा से ज़्यादा इसलिए जी पाता है

क्योंकि बाक़ी जानवर कम से कम जीते हैं

और जो कोई लम्बा जीवन जी लेता है

उसे कछुआ होना होता है।

कछुआ बनकर ही तो जिया

सिमटा रहा कल्पनाओं और विभ्रमों की खोल में

बेहतर दुनिया के लिए रचने और लड़ने के नाम पर

बदतर दुनिया को टुकुर-टुकुर देखता रहा चुपचाप

तभी तो साठपूर्ति के दिन याद आये मुक्तबोध

जो साठ तक नहीं जी सके थे

पर सवाल पूछ दिया था :

'अब तक क्या किया जीवन क्या जिया..'

ख़ुद को बचाने के लिए

देखता रहा चुपचाप देश को मरते हुए

और ख़ुद  को भी कहाँ बचा पाया!