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सेल्फी | अनामिका 

माएरी मैं तो गोविंद लीनों मौल

चित्तौड़ के एक लिपे-पुते दालान में 

मुझे मिल गई मीरा बाई 

गोविंद को तौलतीं 

एक विराट से तराज़ू पर 

जो है आदमी का मन 

डोलता ही रहता है हमेशा 

और कभी एकाद पल संतुलित होकर

फिर से झुक जाता है एक तरफ 

बेचारगी में

मीराबाई को मगन देखकर 

मेरे मन में यह अचानक जगा 

कि मैं सेल्फ़ी लूँ

इधर मेरे बच्चों ने मुझे एक मोबाइल दी थी 

और सिखाया था मनोयोग से 

कि कैसे लेते हैं सेल्फ़ी

लेकिन यह गुर मैंने कभी आजमाया नहीं था 

क्योंकि मेरे पल्ले बात ही नहीं पड़ती थी 

कि सेल्फ का दायरा इतना टुन्ना मुन्ना भी हो सकता है

जो एक क्लिक में समा जाए

खुद फ़रीद बाबा कबीर और मीरा ने

मुझको सिखाया था यही सदा 

कि आदमी के विराट सेल्फ में 

पूरा ब्रह्मांड है समाया 

एक साथ इसमें समाए हैं 

बूंद और समुद्र, पहाड़ और चींटी

यह दुनिया वह दुनिया जंगल की वीथियाँ

सूरज चंदा यह उनचास पवन 

बादल-बिजली, माटी, आकाश, पानी, गगन 

एक क्लिक में सब समाएगा कैसे

सुनी सुनाई बात भी इसको मानें अगर 

इतना तो आखिर देखी है न 

कि मेरा यह वजूद खासा छितराइन छरिया और घनचक्कर है

इतनी जल्दी वह पकड़ में नहीं आएगा 

मैं जन्मों से एक धुनिया हूँ 

धुनती ही रहती हूँ नाक

मेरे वजूद की कोठरिया में 

दुविधाएँ फैली हैं

धुनी हुई रुई की तरह

नीरस, बेरंग, विपुल विस्तार 

धुनी हुई रूई का, यही है मेरा वजूद 

एक तो समाएगा नहीं एक क्लिक में 

फिर इसमें ऐसा क्या है आँकने लायक  

यही सब समझाती खुद को रही 

और कभी खीचीं नहीं सेल्फ़ी 

लेकिन उस दिन जब दिखीं मीराबाई 

तो मुझको सूझा मैं ले ही लूँ

मीराबाई के संग अपनी भी सेल्फ़ी

मैं उनसे सट कर खड़ी हो गई 

कंधे पर मैंने झुकाया ज़रामा था 

पर जब दुलार से छुआ मुझको मीरा ने 

मैं तो बस भूल ही गई 

कि क्या करने मैं यहाँ आई थी 

सदियों के मेरी थकान 

मुआवज़ा माँगने आ गई

और मैं सो ही गई उनके कंधे पर 

सेल्फ़ी वेल्फ़ी भूलकर