सुगिया | निर्मला पुतुल
‘सुगिया, तुम्हारे होंठ सुग्गा जैसे हैं’ एक ने कहा
‘सुगिया, तुम्हारे होंठ सुग्गा जैसे हैं’ एक ने कहा
सुगिया हँस पड़ी खिलखिला कर
‘तुम हँसती हो तो बहुत अच्छी लगती हो सुगिया’
बादलों में बिजली से चमकते उसके दाँतों को देख दूसरा बोला।
तीसरा ने फ़रमाया, ‘तुम बहुत अच्छा गाती हो बिल्कुल कोयल की तरह
और नाच का तो क्या कहना, धरती नाच उठती है जब तुम नाचती हो’
चौथे ने उसकी आँखों की प्रसन्नसा में क़सीदे पढ़े,
चौथे ने उसकी आँखों की प्रसन्नसा में क़सीदे पढ़े,
‘तुम्हारी बड़ी-बड़ी आँखें बिल्कुल बड़ी ख़ूबसूरत हैं सुगिया
बिल्कुल हिरणी के माफिक,
तुम पास आकर यहीं बैठी रहो, मुझे देखती रहो
पँचवाँ जो बिल्कुल क़रीब था और चुप-चुप
उसने चुपके से कान में कहा,
‘मुझसे दोस्ती करोगी सुगिया, सोने की सिकड़ी बनवा दूँगा तुझे’
सुनकर उदास हो गई सुगिया,
रहने लगी गुमसुम, भूल गई हँसना, गाना, नाचना–
सुबह से शाम तक दिन भर मरती-खटती सुगिया
सोचती है, अक्सर, यहाँ हर पाँचवा आदमी उससे
उसकी देह की भाषा में क्यों बतीयाता है
काश! कोई कहता तुम बहुत मेहनती हो सुगिया
बहुत भोली और ईमानदार हो तुम
काश! कहता कोई ऐसा।