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Description

सूर्य ढलता ही नहीं | रामदरश मिश्र | आरती जैन

चाहता हूँ, कुछ लिखूँ, पर कुछ निकलता ही नहीं है

दोस्त, भीतर आपके कोई विकलता ही नहीं है!

आप बैठे हैं अंधेरे में लदे टूटे पलों से

बंद अपने में अकेले, दूर सारी हलचलों से

हैं जलाए जा रहे बिन तेल का दीपक निरन्तर

चिड़चिड़ाकर कह रहे- ‘कम्बख़्त, जलता ही नहीं है!’

बदलियाँ घिरतीं, हवाएँ काँपती, रोता अंधेरा

लोग गिरते, टूटते हैं, खोजते फिरते बसेरा

किन्तु रह-रहकर सफ़र में, गीत गा पड़ता उजाला

यह कला का लोक, इसमें सूर्य ढलता ही नहीं है!

तब लिखेंगे आप जब भीतर कहीं जीवन बजेगा

दूसरों के सुख-दुःखों से आपका होना सजेगा

टूट जाते एक साबुत रोशनी की खोज में जो

जानते हैं- ज़िन्दगी केवल सफ़लता ही नहीं है!

बात छोटी या बड़ी हो, आँच में ख़ुद की जली हो

दूसरों जैसी नहीं, आकार में निज के ढली हो

है अदब का घर, सियासत का नहीं बाज़ार यह तो

झूठ का सिक्का चमाचम यहाँ चलता ही नहीं है!