तब भी क्या तालियाँ बजतीं - नंदकिशोर आचार्य
तब भी क्या तालियाँ बजतीं
अभिभूत थे सभी अभिनय पर मेरे
तालियों की गड़गड़ाहट थी अनवरत नाटक खत्म होने पर
और मैं शर्म से गढ़ा जा रहा था
नहीं, किसी संकोच में नहीं!
ये तो सोचता हुआ, क्या ये तालियाँ कुछ जान पाई हैं
वो घृणा, वो लोलुपता, और करुणा के नीचे खौलती हुई वह महत्वाकांक्षा और फरेब
अपने अभिनय में पहचानता खुद को
उनके लिए जो अभिनय है मेरा, सच है मेरे लिए
काश उनके लिए वह उनका सच होता
देख पाते अभिनय में खुद को अभिनय करते हुए
तब भी क्या तालियाँ बजती अनवरत