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Description

तिरोहित सितार | दामोदर खड़से

खूँखार समय के

घनघोर जंगल में 

बहरा एकांत जब 

देख नहीं पाता 

अपना आसपास...

तब अगली पीढ़ी की देहरी पर 

कोई तिरोहित सितार 

अपने विसर्जन की 

कातर याचना करती है 

यादों पर चढ़ी 

धूल हटाने वाला 

कोई भी तो नहीं होता तब 

जब आँसू दस्तक देते हैं–

बेहिसाब!

मकान छोटा होता जाता है

और सितार 

ढकेल दी जाती है 

कूड़े में 

आदमी की तरह...

सितार के अंतर में

अमिट प्रतिबिंब

बार-बार

उन अँगुलियों की 

याद करते हैं

जिन्होंने उसे

सँवारते हुए

पोर-पोर में

अलख जगाई थी 

और आँख भर

तृप्ति पाई थी...

स्थितियाँ बड़ी चुगलखोर और ईर्ष्यालु

तैश में आकर वे

विरागी सितार का 

कान ऐंठती हैं...

तार के गर्भ में

झंकार अब भी बाकी थी

तरंगें छिपी थीं तार में 

बादलों में

बिजलियों की तरह

सुर प्रतीक्षा में थे

उम्र के आखिरी पड़ाव तक भी!

स्पर्श की याद

रोशनी बो गई

सुनसान जंगल

सपनों में खो गया 

पेड़ झूमने लगे

सितार को फिर मिल गई 

एक संगत...

सितार जीने लगी तरंगें 

स्पर्शो के अहसास में 

आदमी के एकांत की तरह!