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तितलियों की भाषा | मयंक असवाल


यदि मुझे तितलियों कि भाषा आती 

मैं उनसे कहता 

तुम्हारी पीठ पर जाकर बैठ जाएं

बिखेर दें अपने पंखों के रंग 

जहाँ जहाँ मेरे चुम्बन की स्मृतियाँ 

शेष बची हैं 

ताकि वो जगह 
इस जीवन के अंत तक 

महफूज रहे।

महफूज़ रहे, वो हर एक कविता 

जिन्होंने अपनी यात्राएँ 
तुम्हारी पीठ से होकर की 

जिनकी उत्पत्ति तुमसे हुई 

और अंत तुम्हारे प्रेम के साथ

यदि मौन की कोई 

साहित्यिक भाषा होती 

तो मेरा प्रेम, तुम्हारे लिए 
अभिव्यक्ति की कक्षा में 
पहला स्थान पाता

तुम्हारी आंखों से सीखे 
हुए मौन संवाद पर लिखता 

मैं एक लंबा सा निबंध 

इतना लंबा की, वो निंबध 
उपन्यास बन जाता 
और हमारा प्रेम 
एक जीवंत मौन कहानी
मुझे हमेशा से 
आदम जात के शब्दों में 
शोर महसूस हुआ है 
तुमने बताया की 
प्रेम और भावनाओं की भाषा 

उत्पत्ति से मौन रही 

तुम उसी मौन से होकर 

मेरी हर कविता का हिस्सा बनी।