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Description

तुम हँसी हो | अज्ञेय

तुम हँसी हो - जो न मेरे होंठ पर दीखे, 

मुझे हर मोड़ पर मिलती रही है। 

धूप - मुझ पर जो न छाई हो, 

किंतु जिसकी ओर 

मेरे रुद्ध जीवन की कुटी की खिड़कियाँ खुलती रही हैं। 

तुम दया हो जो मुझे विधि ने न दी हो, 

किंतु मुझको दूसरों से बाँधती है 

जो कि मेरी ही तरह इंसान हैं। 

आँख जिनसे न भी मेरी मिले, 

जिनको किंतु मेरी चेतना पहचानती है। 

धैर्य हो तुम : जो नहीं प्रतिबिंब मेरे कर्म के धुँधले मुकुर में पा सका, 

किंतु जो संघर्ष-रत मेरे प्रतिम का, मनुज का, 

अनकहा पर एक धमनी में बहा संदेश मुझ तक ला सका, 

व्यक्ति की इकली व्यथा के बीज को 

जो लोक-मानस की सुविस्तृत भूमि में पनपा सका। 

हँसी ओ उच्छल, दया ओ अनिमेष, 

धैर्य ओ अच्युत, आप्त, अशेष।