तुम लिखो कविता | दामोदर खडसे
तुम लिखो कविता
और मैं देखूँ जी भरकर
कलम, स्याही, कागज़ पर
गुनगुनाता ज़िन्दगी का
अनगाया गीत
सफ़र के बहुत पीछे
कोई गुमनाम मोड़
और इमली के पेड़ पर
कटी हुई पतंग
कबूतरों का जत्था,
राह से उड़ती धूल
मुड़-मुड़कर ठिठकते कदम
लहराता हाथ
कुछ-कुछ क़रीबी
बहुत कुछ दूरियाँ
भीतर-बाहर उतराते
आँखों की डोरों में
किए-अनकिए की उलझन
आत्महंता सिसकन
कैसे बरगलाए कोई अपनी ही आवाज़
लिखो तुम कविता
और मैं देखूँ
मैं देखूँ तुम्हारी अँगुलियों में
एक बेचैन कलम
मैं देखूँ शब्दों में नहायी पुतलियाँ
आँखों में बहुत गहरे
अर्थों की कतारें
माथे पर उड़ती सागर सी हिलोरें
तुम लिखो कविता
और मैं देखूँ
मैं देखूँ तुमको
कविता में बदलते हुए।