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Description

उम्मीद | दामोदर खड़से 

कभी-कभी लगता रहा मुझे 

समय कैसे कटेगा जिंदगी का 

जब होगा नहीं कोई फूल 

बहेगी नहीं कोई नदी 

पहाड़ हो जाएँगे निर्वसन 

मौसम में न होगा कोई त्योहार 

हवाओं में होगी नहीं गंध 

समुद्र होगा खोया-खोया उदास 

शामें गुमसुम-गुमसुम 

और सुबह में न कोई उल्लास 

कैसे कटेगा तब समय

जिंदगी का?

सोच-सोच मैं 

होता रहता सदा अकेला 

पर आ जाती है ऐसे में 

कोई आवाज़ भीतर से 

मंदिर की घंटी की तरह 

ज्यों जाग गए हों 

देवता सारे 

चारों ओर 

हो रहे मंत्रोच्चार से 

लद गए हों वृक्ष-वनस्पतियाँ

धूप की रोशनी में

दिख रहा हो सब पारदर्शी 

जाग गई हो प्रकृति सारी

और समय मेरे कानों में

फुसफुसाता है जोर से

मैं थाम लेता हूँ अचकचाकर

पानी से भरे बादलों को

और नमी मेरे भीतर तक

दौड़ जाती है...

अपनी धरती से उठती आवाज़

जगाती उम्मीद बहुत है

फिर लगता है, बहुत सहारे बाकी हैं अभी!