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Description

उनका  घर | हेमंत देवलेकर 

आग बरसाती दोपहर में

तगारियाँ भर- भर कर

माल चढ़ा रहे हैं जो ऊपर 

घर मेरा बना रहे हैं।

जिस छत को भरते हैं

अपने हाड़ और पसीने से

वे इसकी छाँव में सुस्ताने कभी नहीं आएंगे 

इतनी तल्लीनता से एक- एक ईंट की

रेत- मसाले की कर रहे तरी

वे इस घर  में एक घूँट भर पानी  के लिये

कभी नहीं आएंगे |

दूर छाँव में खड़ेखड़े हो देखता हूँ 

वे सब पक्षियों की तरह दिन रात

जैसे अपना ही घोंसला बनाने में जुटे हुए 

उनको शुक्रिया कहने का ख़्याल भी

मुझे नहीं आएगा ।

एक दिन

सीमेंट, चूने, गारे से लथपथ

यूं चले जायेंगे वे 

जैसे थे ही नहीं ।

मुझे तस्सली होगी कि उन्हें

मेहनताना देकर विदा किया

लेकिन उनका बहुत-सा उधार 

इस घर में छूटा रह जाएगा !