उनका जीवन | अनुपम सिंह
ख़ाली कनस्तर-सा उदास दिन
बीतता ही नहीं
रात रज़ाइयों में चीख़ती हैं
कपास की आत्माएँ
जैसे रुइयाँ नहीं
आत्माएँ ही धुनी गई हों
गहरी होती बिवाइयों में
झलझलाता है नर्म ख़ून
किसी चूल्हे की गर्म महक
लाई है पछुआ बयार
अंतड़ियों की बेजान ध्वनियों से
फूट जाती है नकसीर
भूख और भोजन के बीच ही
वे लड़ रहे हैं लड़ाई
बाइस्कोप की रील-सा
बस! यहीं उलझ गया है उनका जीवन।