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उस रोज़ भी |  अचल वाजपेयी

 

उस रोज़ भी रोज़ की तरह

लोग वह मिट्टी खोदते रहे

जो प्रकृति से वंध्या थी

उस आकाश की गरिमा पर

प्रार्थनाएँ गाते रहे

जो जन्मजात बहरा था

उन लोगों को सौंप दी यात्राएँ

जो स्वयं बैसाखियों के आदी थे

उन स्वरों को छेड़ा

जो सदियों से मात्र संवादी थे

पथरीले द्वारों पर

दस्तकों का होना भर था

वह न होने का प्रारंभ था