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Description

उसकी गृहस्थी | राजेश जोशी 

थकी हारी लौटी है वो आफिस से अभी

टिफिन बाक्स को रसोई में रखती है।

मुँह पर पानी के छीटे मारती है

बाहर निकल आई लट को वापस खोंसती है।

बालों में

आँखों को हौले से दबाती है हथेलियों से

उठती है और रसोईघर की ओर जाने को होती है।

मैं कहता हूँ, 'बैठो, तुम, आज मैं चाय बनाता हूँ !

मेरी आवाज़ की नोक मुझ़ी को चुभती है।

गैस जला कर चाय का पानी चढ़ाता हूँ

और दूसरे ही पल आवाज़ लगाता हूँ

सुनो शक्कर किस डब्बे में रखी है

और चाय की पत्ती कहाँ है ?

साड़ी का पल्लू कमर में खोंसती हुई वो आती है।

मुझे हटाते हुए कहती है- हटो, तुम्हें नहीं मिलेगी कोई चीज़।

होठों को तिरछा करती अजीब ढंग से मुस्कुराती है।

मुश्किल है उस मुस्कुराहट का ठीक-ठीक अर्थ

समझा पाना

जैसे कहती हो यह मेरी सृष्टि है

तुम नहीं जान पाओगे कभी

कि किन बादलों में रखी हैं बारिशें और किनमें रखा है कपास

कोई डब्बा खोलते हुए कहती है :

यह तो मैं हूँ कि अबेर रखा है सब कुछ 

वरना तुम तो ढूंढ नहीं पाते अपने आप को

जाओं बाहर जाकर टी वी देखो

एक काम पूरा नहीं करोगे और फैला दोगे

मेरी पूरी रसोई ।