यह मैं समझ नहीं पाती| अदीबा ख़ानम
यह मैं समझ नहीं पाती
हम आख़िर किस संकोच से घिर-घिर के
पछ्छाड़े खाते हैं।
बार-बार भागते हैं अंदर की ओर
अंदर जहां सुरक्षा है अपनी ही बनाई दीवारों की
अंदर जहां अंधेरा है.
एक सुखद शान्त अंधेरा।
वह कौन सी हड़डी है
जो गले में अटकी है
और
जिसे जब चाहे निकालकर फेंका जा सकता है।
लेकिन
क्यों इस हड़डी का चुभते रहना हमें आनंद देता है?
और आख़िर यही संकोच
जिससे मैं जूझती हूं लगातार
बार-बार
अक्सर अपनों से दूर होकर
दुसरे अपनों को अपना न पाना
क्या इस शब्द का निचोड़ भर है?
या है नाउम्मीदी
अपनों के प्रति
यह अपना होता क्या है?
और पराए की धुन
मुझे फिर भी कभी-कभी
दूर से सुनाई पड़ती है
ये धुन बजती रहती है
पार्श्व में एक गहरी शांति से लबरेज़
ये सहारा देती है तब
जब उठता है मोह
उन लोगों से जिन्हें हम कहते हैं
अपना
दुनिया कहती है कि
मोह बहुत अच्छी चीज नहीं है
मैं पूछती हूँ कि मोह बुरी चीज़ क्यों है
जब चाँद के मोह से
खिंच सकते हैं समुद्र मनुष्य और भेड़िए
तब अपनों के मोह का निष्कर्ष बुरा क्यों है?
मोह सिखाती है धरती
अमोह कौन सिखाता है भला?